पुराने संघ में कोई पद, प्रतिष्ठा, मंच, माला का चलन ही नहीं था।
आज के समय लोगों ने लाखों तरह के पद बनाये हुये हैं। यहां तक कि धार्मिक लोग भी पद लेकर चलते हैं। बुद्ध ने दुनिया का पहला भिक्खु संघ स्थापित किया। मगर संघचालक, संघनायक, संघ सेनापति जैसा कोई पद नहीं बनाया। बुद्ध से पहले भी संघ था समण लोगों का। पुरातन समण संघ से लेकर आज तक सभी संघ गतिविधियों में कहीं भी, कोई भी पद नहीं दिखाई देता है। बुद्ध के पास भी कोई पद नही था। बुद्ध को सभी भन्ते ही कहते थे और बुद्ध भी सभी को भन्ते ही कहते थे। सभी एक दूसरे को भन्ते ही कहते थे। समण संघ में भी सभी साथी एक दूसरे को 'सर' कहते हैं व महिलाओं को 'बहन जी' कहते हैं। संघो में कभी किसी भी संघी का VIP, VVIP स्थान नहीं रहा है। ना ही मंचासीन की स्थिति रही है। बस एक ऊंचा आसान या कुर्सी, स्टूल जैसा मिट्टी का चबूतरा होता था जहां बैठकर, भन्ते, भिक्खु देसना, उपदेसना, उपदेस देता था या बुद्ध देते थे या आम साधारणसमण अपने समण संघ में बात करता था। इसे संघासन बोलते थे। संघ आसन। संघ की कुर्सी।
मंच लोगों को ऊंच नीच बनाती है। जो मंच पर बैठता है, वो अपने आप को ऊंचा मानता है, बाकी को नीचा मानता है। इससे समता समानता खत्म हो जाती है। संघ के अन्दर समानता होती है। अतः मंच नहीं लगाई जा सकती है। सभी लोग समणों की संगीति में नीचे बैठते थे। वही नियम अब भी चलता है। संगीतियों में सभी लोग नीचे बैठते हैं, जिनके घुटने खराब हैं, वे कुर्सियां पर बैठते हैं। अधिकतर यही व्यवस्था रहती है। यदि कहीं auditorium लेना पड़े, तब भी मंच नही लगता। मंच निषेध है।
इसी तरह, माला, साल, दुसाला पटका, टोपी, पगड़ी, मोमेन्टो, फूल, बुके आदि का भी स्वागत सत्कार नहीं होता है। क्योंकि सभी समान हैं। यदि आप किसी का सत्कार करते हैं तो बाकी लोगों का दुत्कार हो जाता है। यदि आप किसी का स्वागत करते है तो बाकी लोगों का दुआगत हो जाता है। यदि आप एक को विसेस मान सम्मान देंगे तो बाकी का अपमान हो जाता है। यदि आप एक की प्रसंसा करेंगे तो बाकी की निंदा हो जाती है। यदि आप किसी को प्रतिष्ठित करेंगे तो बाकी अप्रतिष्ठित हो जाते हैं।
संघ में समानता सिर्फ कहने भर की नहीं होती है। यदि समानता की बात की जाती है तब वह समानता बातचीत, व्यवहार, आचार में भी दिखाई देती है। समानता के सिद्धान्त का पूर्णता पालन किया जाता है। इससे कुछ बीमार लोगों को परेशानी होती है, जिन्हें मंच, माला, पद, प्रतिष्ठा, गमछा, टोपी की बीमारी लगी पड़ी है। पर ऐसे कुछ ही लोग हैं।
मंच, माला, पद, प्रतिष्ठा समणों के क्रियाकलाप नहीं हैं। यह बीमारी बाहर के लोगों से आयी है। अल्पसंख्यक या थोड़े लोग जब बहुसंख्यक लोगों पर दवाब बनाते हैं तब वे अपने किसी एक व्यक्ति को प्रतिष्ठित करने के लिए ऊंचा मंच लगाते हैं। एक सिंह की कुर्सी लगाते हैं, बहुत बड़ी बड़ी माला पहनाते हैं और उसे सबसे बड़े पद पर प्रतिष्ठित करते हैं। फिर उसका जयकारा लगाते हैं, फिर उसकी झूठी वीरगाथाएं गढ़ते हैं, उन झूठी वीरगाथाओं का ढोल बजा बजाकर प्रचार करते हैं फिर उसके बाद बहुसंख्यक लोगों को साम दाम दण्ड भेद छल कपट से उस झूठी वीरगाथा को गाने के लिए मजबूर करते हैं। इससे कुछ समय बाद वह व्यक्ति, जिसने जिन्दगी में कभी मेंढ़की का शिकार न किया हो, वह शेर का शिकार करने की झूठी वीरगाथाओं का हीरो बन जाता है। पर समण संघ में न ऐसा अभ्यास कभी रहा है, न कभी रहेगा।
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